जख्म अभी हरा है
थोड़ा थोड़ा भरा है,
पर जख्म अभी हरा है
कहने को तो जिन्दा है
अंदर से अधमरा है
तूफां में टूटी कस्ती
कब तक चला करें
साहिल के टूटे ख्वाब
कब तक बूना करें
दामन-ऐ-ख़ुशी का मांगूं भी
तो मांगूं किस लफ्ज से
हर शक्श इस मैदां में
बूत सा खड़ा है
रात की नींद, दिन का चैन
कब तक जाया करें
फुरसत की चंद बातें भी क्या
पैसे से लाया करें
लावा सुलग रहा है,
फटने की चाह में
डर तबाही का इसे भी है
पर कश्मकश में पड़ा है,
थोड़ा थोड़ा भरा है,
पर जख्म अभी हरा है
कहने को तो जिन्दा है
अंदर से अधमरा है
-सिद्धार्थ श्रीवास्तव (सिद्धू )