धुल भरी एक मेज़
तुझे अपनी यादों से भुलाऊँ भी तो कैसे,
बह रहे है ये जो अश्क़, उन्हें छुपाऊं भी तो कैसे,
मुसलसल दफा होती खुशियों को
वापस बुलाऊँ भी तो कैसे.
लम्हे बस कटते जा रहे है ,
एक लम्बे इंतज़ार में,
घड़ियां रुक गयी है ऐसे की,
ख़ामोशी ही ख़ामोशी है , हर बाजार में.
खुशनुमा गुलाबों की क्यारियां जो थी कल तक,
आज वो है काँटों का समंदर,
घुलती थी मिसरी सी एक हसी, इस पगडंडी पे कभी ,
यहां बिखरे पड़े है यूँ ही , गुजरी कुछ बातों के खंज़र
दरवाजे पे हो दस्तक तो,
दिल फट पड़ता है धडकने बढ़ने से
झांक लेता हूँ चौखट पे, अचानक यू ही,
कैसे रोकूँ खुद को अतीत में भटकने से ?
कैसी हुई खता की मुझे माफ़ी भी ना नसीब,
तक़दीर मेरी एक ज़ालिम है ? या फितरत मेरी गरीब ?
, बदल सकूं मैं मैं माज़ी का रुख, बता मुझे या रब
एक तो होगा मौका ? कोई तो होगी तरकीब ?
तेरे वज़ूद की शम्मा में ,
अब शामें जला रहा हूँ
तेरे दिए कुछ तोहफों को ,
खुद से छिपा रहा हूँ
आज भी रक्खे है बचा के
वो मिटटी के गुलदस्ते ,
वो खिलौनों वाल ताज महल
वो रेशम वाले बस्ते
बरसों पुरानी तस्वीर तेरी एक ,
वो पैरहन का हिस्सा, खुशबू से लबरेज़
वो खतों से भरा सन्दूक पुराना
वो पलंग का सिरहाना ,वो धुल भरी एक मेज़
-सिद्धार्थ श्रीवास्तव