एक खूबसूरत शाम
ज़िन्दगी
की शाम बड़ी खूबसूरत
है,
जिसमे
दिखती कोई सूरत है,
बैठ
के देखता रहा गौर से,
इत्मीनान से ,
तो लगा जैसे शायद
यही मेरी जरुरत है
,
शहर
की गालियाँ, दर दर भटकाती
रही
बेफिक्र,
नादान ख्वाहिशें , उठती रही
कभी
नींद में चलाती रही,
और कभी नींद से
जगाती रही,
आज याद आती है
वो चौपाल
जहां
लगती थी कभी मजलिस,और लगते थे
मज़मे ,
यारो
की गालियां भी क्या शौक
से लेते ,
और दुहराए जाते कुछ बेसुरे
नगमे
चल देता हूँ आज
फिर, ए शाम तुझे
अकेला छोड़ के
रात
के फैलते
दामन से, धुंधले तारे कुछ
तोड़ के,
मिलूंगा
तुझसे कल इसी
जगह वापिस,
सुनाऊंगा
तुझे कुछ किस्से कच्चे रस्तों के,
कल फिर
सुनूँगा तुझसे कुछ कहकहे पुरानी
मोड़ के
- सिद्धार्थ श्रीवास्तव