Saturday, August 1, 2020

कुछ छूट गया, कुछ छोड़ दिया

अनमने मन के आँगन में ,
कुछ पत्ते आम के गिरते ,
भरी दुपहरी के बीच,
सरकते ससरते, पड़ते , बिखरते ,

हो गया अब वक़्त, कुछ कह देने का ,
और चल देने का कई वादियों से,
नयी फ़िज़्ज़ाओं की खोज में ,
दूर ज़िंदा होती इन बर्बादियों से ,

हंसी के ठहाके,
गूँज जाएँ  फिर से इन क्यारियों के बीच ,
लतीफे गुलज़ार हो जाएं यूँ ही ,
दे फिर से इस दिल को सींच,

इसी कश्मकश में ,
जो मिला सो मिला, जो नहीं मिला उसे तोड़ दिया ,
खोजता रहा एक दबा खजाना, पर वापस लाने की कोशिश में
कुछ छूट गया , कुछ छोड़ दिया















ए ग़ालिब तू भी हसता होगा देख कर मुझे ,
या रोना आता होगा, तुझे मेरी तक़दीर पर ,
आसुओं का घरौंदा बनाया मैंने ,
एक गुमसुदा पत्थर की लकीर पर ,

सुना है सोच के आगे भी जहाँ होता है ,
रोकने से भी रुक जाना कहाँ होता है ,
वक़्त थम जाये तो पूछ लूँ उससे,
लूट लो जहाँ फिर भी ,
पर हर मुसाफिर को खोना यहाँ होता है ,

इन्हीं ख्वाहिसों के आलम में ,
जो मुड़ा सो मुड़ा, जो नहीं मुड़ा उसे मोड़ दिया ,
जंग में जीता एक जहाँ , पर लूटी हुई एक बस्ती में ,
कुछ छूट गया , कुछ छोड़ दिया ,




















मुड़ कर पीछे देखने वालों को,
कमजोर कहती है दुनिया ,
वो सिकंदर भी था,
जिसने मुड़ कर पीछे देखा था ,
वो अकबर भी था ,
जिसके ख्वाब रहे कई अधूरे ,

इन्ही उतरती डूबती हुई कश्तियों ने ,
कई राहगीरों को जीते देखा ,
हर खुशी, हर ग़म को ,
एक ही तरीके से पीते देखा  ,

उफनते दरियाओं और तूफ़ाओं में ,
जो नहीं बदला, उसे छोड़ दिया ,
खोजे कई जज़ीरे नए , पर घर बनाने की कोशिश में,
कुछ छूट गया , कुछ छोड़ दिया

-सिद्धार्थ

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