Wednesday, June 7, 2017

आँगन का कुआं


सालों गुजर गए ,
आज  वापस  गाँव  की  तरफ  पहुंचा
आँगन से   गुजरते , कुँए  पे  नज़र  अटकी ,
ऐसा  लगा  मानो ,
मुझे  टकटकी  लगा  के  देख  रहा  हो
एक  गजब  की  ताकत  से  उसने  मुझे  अपनी  और  खींचा ,
और  अंदर  झाकने  को  मजबूर  कर  दिया .

काई की  परतों  ने  एक  हरा  कालीन  बून दिया था  गहरी दीवारों पे
सीलन है की फिसलने को पास बुला रही थी

गिर जाऊं तो क्या हो
सोच के ही रूह कांप उठती है
कुएं के ऊपर एक छोटी सी चरखी
जो कभी किसी जमाने में
चलते न थकती थी














पर आज उसमे जंग ही जंग थी
जो उसकी लाचारी को बेपर्दा कर रही थी
एक कमजोर रस्सी से बंधी एक बाल्टी
जिसकी लचक पे न जाने कितने कुर्बान हुए
आज भी पानी पे तैर रही है
और हर झाकने वालों से अपनी मजबूरी का रोना रोती है


कम्बख्त कोई तो निकाल लो
या डूबा दो मुझे इस कुँए में
हमेशा के लिए
किसी का तो दिल पसीजे
जो मुझे यहाँ से बहार निकाले
और आज़ाद कर दे सदियों के इस अँधेरे से
मुआ ये कुआं भी सूखने का नाम नहीं लेता
हर बारिश में फिर से भर जाता है

ऐसी ही कुछ कहानी है
हम इंसानों की भी
जीवन एक कुआँ है , और इंसान एक बाल्टी,
कुँए का पानी दुःख है, और बरसात है ख़ुशी
रिश्तों की रस्सी से बंधे हम इंसान
जिसे हम छोड़ना  तो चाहते है
पर वो हमें ना डूबने देती है
और ना ही बाहर निकलने देती है

- सिद्धार्थ श्रीवास्तव





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