हर समय, हर घडी,
हर पल, हर वक़्त,
हर नगर, हर डगर ,
हर शाम , हर पहर,
मैंने बस चलना सीखा है ,
पीछे मुड़ने का वक़्त नहीं ,
ना ही सोचने का समय,
ना ही रुकने का आलम है ,
गर्मियों की तपिश में भी मैंने ,
बर्फ की तरह गलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है ,
जग जाता हूँ मैं हर रोज़,
ख्वाहिसों की शम्मा जला कर,
कई दर्द, कई अरमानों को ,
तकिये के नीचे दबा के
दोपहर की धुप में हर दिन,
पत्थर की तरह जलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है ,
सदियाँ बीत गयी, पर जमीं अभी तक सूनी है ,
पायल की एक झंकार को तरसूं ,
दिन लम्बे ,और रात दोगुनी है ,
शाम के सूरज की तरह मैंने ,
हर रोज़ ढलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है
कई आय, कई गए ,
कई पुराने, कई नए ,
किस्से तो मेरे बोरी भर के ,
और घटनाएं भी अनंत है ,
अनंत और अथाह के बीच,
मैंने हाथों को मलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है ,
अनिश्चितताओं से स्वांग रचाया ,
निश्चितताओं से भी प्यार किया ,
सोचने और समझने से ले कर ,
बहकने से भी इंकार किया ,
जज़्बातों की आंधी में भी मैंने
हसीं के पुए तलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है
घटित होता है एक क्रम ,
रचित होता है एक संसार,
धूमिल होती है कल्पनाएं ये ,
लेतीं कई अकार,
किसी क खुशियों के वास्ते मैंने ,
बलाओं की तरह टलना सीखा है ,
मैंने बस चलना सीखा है
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